दन्तेवाड़ा जिला छ्त्तीसगढ़, भारत या दुनिया में सिर्फ़ नक्सलवादी कारण से ही फ़ेमस नही है ये मशहुर है भष्ट्राचार के लिये भी । इस वेदी पर एक बार फ़िर से इसने कमाल दिखाया है महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम मे । कांकेर के बाद दुसरा बडा फ़र्जीवाडे कर इस जिला ने अपना ओर ध्यान आकर्षित किया है । गीदम ब्लाक में हुये इस करनामे ने कुछः अच्छे तथ्य़ जनता के समाने रखे हैं । ज़रा गौर फ़रमाये..............
नारेगा मजदुरो की बापोती नही है, ये अफ़सरो की जागीर है..............(अफ़सर बने ठेकेदार)
मस्टर रोल बन जाते है,भले ही मरे लोगो अपने हस्ताक्षर करे या सरकारी कर्मचारी........
घटिया समान हमारी पहचान है, कमिशन तभी तो है भाई........................
नियम हम बनते है, तो तोड़ना भी हमारा काम हैं.............................
इसलिये तो कहते है........ बस्तर है बस्तर मेरे भाई
Saturday, September 18, 2010
नई कहानी दंतेवाड़ा की
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Friday, August 17, 2007
यहां काम करना मना है ।
दोस्तों, अभी अख़बारो से खबर मिली कि दक्षिण बस्तर के सुदूर गांव को स्वास्थ्य सेवा पंहुचने वाली विदेशी संस्था मेडिकल सेंस फ़्रंटियर को शासन ने काम करने से रोक दिया । इस संस्था पर नक्सलीओं का इलाज़ करने का आरोप लगा गया है । कहा गया है कि संस्था को सिर्फ़ केम्प मे कार्य करने के लिये कहा गया था लेकिन यह गांव मे जाकर लोगों का इलाज कर रही है । इन गांव मे नक्सली रहते है । जब सरकार को यह मालुम है कि यहां नक्सली है तो वहां पुलिस को भेजकर मार क्यों नही देती । कुछ गांवों मे इनकी पंहुच थी जहां सरकार के लोग नही पंहुच सकते है या जाना नही चाहते । दक्षिण बस्तर में अब ये स्वास्थ्य सुविधा भी गरीब आदिवासीओ से छिन गयी ऊपर से एक भली संस्था को बदनामी भी साथ दे दी । भई आखिर बस्तर है बस्तर ! जो इस संस्था ने यहां काम करने की जो गलत आद्त जो डाली थी । यहां काम करना मना है भई ! खैर जो भी हो यह संस्था नोबल पुरुस्कार प्राप्त है तथा हमारे देश ने भी इंदिरा गांधी पुरुस्कार से सम्मानित किया है । संस्था का काम है मुश्बित में फ़से लोगों को इलाज उपलब्ध करवाना । देश मे जम्मु कशमीर, मणिपुर, मुम्बई, तमिलनाडू में इस संस्था का काम करती है ।
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Friday, August 10, 2007
बस्तर की शान को लगा चूना ।
बस्तर को बारिश ने फिर इस साल धो डाला । बस्तर में बाढ़ राहत के लिये पिछ्ले साल करोड़ों रुपये का आवंटन सरकार ने किया था । पिछले साल की बाढ़ ने कई घरो में लाखो के व्यारे नारे कर दिये थे और कुछ लोगो को कंगाल बना दिया था ।
इस साल सरकार ने बाढ़ की पूर्व तैयारी कर रखी थी । पर इसने सारे की सारे मन्सुबे पर पानी डला दिया ।
बस्तर मे जोरो की बारिश ही नही हुई कि ताबाही ला सके । इससे कुछ चेहरे पर से मुस्कान ही खत्म हो गयी है । इस बारिश ने शायद कुछ कम लोगों को लखपति व करोड़पति बनाने का सोच रखा है । खैर क्या करे बाढ़ लाना हमारे हाथ मे तो नही है ना । तो जुगत लगायी जाये की अल्पवर्षा घोषित कर दिया जाये । १५ अगस्त तक बाढ़ आ गयी तो आ गयी नही तो सुखा की घोषणा तो तय है । बाढ़ से नही तो सूखे से रईस होने की कोशिश तो करी जा सकती है ।
पिछले बार हर विभाग को लाखो करोडों रुपये मिले थे, बाढ़ मे कुछ नही बहा पर उसकी मरमम्त के लिये तो कहीं पुनःनिर्माण की लिये पैसे की कमी नही थी । इस साल की कम बारिश ने ही उसकी पोल खोल दी । कुछ लोगों ने प्रर्दशन किया पर सब ठीक हो गया । चलता है भाई अब तो सूखे का इंतजार है।
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Friday, August 3, 2007
कुछ दिन भूखे सही
छ्त्तीसगढ़ के सबसे ज्यादा खनिज सम्पदा से परिपूर्ण दक्षिण बस्तर इलाके मे टी. बी. , एनिमिया, सिकल सेल से पीडि़त मरीजो की भी खदान है । रोज लोग मर रहे है पर सब ठीक चल रहा है किसी के चेहरे पर जरा भी सिकन तक नही, अरे भाई इसलिये तो यह बस्तर है बस्तर ।
भारत के सबसे पिछ्ड़े जिलों मे से एक दक्षिण बस्तर दंतेवाडा में आपका स्वागत हैं । यह अदिवासी जिला लोह अयस्क के उत्कष्ट खदान के लिये जाना जाता है । एन. एम. डी. सी. की काफ़ी बडी खदान इस जिले में है । सब लोग गर्व से कहते है हमारे राज्य का गौरव एन. एम. डी. सी. है । करोडों रुपये की आमदानी इससे सरकार को है और सामाजिक जिम्मेदारी में हिस्सेदारी अलग से यानि लोहे के व्यापार में सबकी चांदी पर आदिवासी फ़िर भी भूखे है ।
पर बदकिस्मती देखिये इस जिले के बच्चे और महिला दोनो गंभीर कुपोषण के शिकार हैं । इस में सबसे बुरी हलात 6 माह से 36 माह के बच्चे की है कुल बच्चों में से 85फ़ीसदी कुपोषण की चपेट में है लगभग 65 प्रतिशत गर्भवती महिला भी खुन की कमी के साथ अपना जीवन जी रही है ।जिन्हें ये भी नही मालुम की प्रसव के समय वो और उसका बच्चा जीवित रहेगा या नही । खैर यहां के लोगो को साल भर खाने के लिये पार्यप्त खाना भी मय्सर नही हो पाता है । किसान अपने लिये कोसरा (एक तरह का चावल ) उगाते है लेकिन उपजाऊ जमीन की कमी के कारण उसे साल भर भी नही खा पाते है । सब लोग जंगल से मिलने वाली वनोपज पर निर्भर है । इससे अपनी आवश्कता की चीजें हाट से खरीदते है, लेकिन अब तो हाट भी सरकारी मर्जी से लगने लगे है । जहां लगे भी तो लोगों के पास इतनी लघु वनोपज भी नही है कि उस बेचकर जरुरत का सामान खरीदा जा सके । संग्रहण करने की इजाजत नक्सली और सरकार के लोग नही देते तो बेचारा इंसान क्या करे । खाने के लिये सुबह बासी ( रात का बचे चावल में पानी डाल कर रखने से बनता है) दोपहर मे पेज और शाम को कोसरा या चावल का भात खा पाते है । खाद्दान्य के कमी वाले दिनो में वनोपज पर निर्भरता होती है और खाना सिर्फ़ दो समय ही मिल पाता है यानि पेज और वनोपज (महुआ) ।
उपलब्ध संसाधान खान पान के तरिके तय करते है किन्तु यहां ऐसा नही है अनियमित और अपोषक आहार से कुपोषण बढ़ता ही जाता है । पिछ्ले कुछ सालो से आखेट में नक्सली और सरकार द्वारा लगाये प्रतिबंध से वनो में निवासरत जातियो को उच्च प्रोटिन व वसायुक्त भोजन मिलना मुश्किल हो गया है और कुपोषण बढ़ता जा रहा है । कुपोषण की स्थिति में सभी बीमारी शरीर पर जल्दी कब्जा करती हैं । ऎसे मे टी.बी., एनिमिया, खसरा, डायरिया और मलेरिया भी लोगो की जान लेने के लिये काफ़ी है । जलजनित रोगो की गिरफ़्त आने से हालत और भी खराब हो जाती है पर दो सालो में किसी की मौत नही हुई, ऎसा यही हो सकता है ।
बास्ता ( बांस की कोपल) खाने और बेचने पर भी प्रतिबंध लगा है । वन विभाग कहता है ये आदिवासी बस्ता बेचने के लिये बांस के जंगल को नष्ट कर के 35-40 रुपये का एक बांस के मान से करोडो रुपये का नुकसान कर रहे है पर जंगल के रखवाले तो यही लोग है । सरकारी नीलामी मे तो बांस की कीमत 2 या 3 रु० से ज्यादा नही होती है क्योंकि उसे उधोगो को बेचा जाता है और आम व्यक्ति के लिये 22-24 रु० में तो फ़िर मूल्यांकन 35-40 रु० का क्यों, समझ नही आता । 11 ब्लाक वाले इस जिले में कुछ ब्लाक के 70% से अधिक गांव तो सभी सरकारी सुविधा से वंचित है । कई अखवार तो कहते है कि 640 गांव मे सरकार का कोई काम नही होता पर राशि पूरी खर्च होती है । मतलब लगभग तीन लाख लोगो तक सरकार की पंहुच नही है तो इन गांवो के निवासी भगवान भरोसे ही जी रहे है । तीन प्रदेश की सीमा को छुते हुऐ इस जिले की समास्या भी काफ़ी जटिल है नक्सलवाद , गरीबी , अशिक्षा और भ्रष्टाचार। इन सब से निपटने की रणनीति कोई सोचना भी नही चाहता है । पी. साईनाथ सही कहते है अकाल कुछ लोगो की चाह्त होते है । 2004 मार्च में जिले के गांव बुरगुम, हिड़पाल में भूख से मौत ने सरकार की नाक मे दम कर दिया था । पर अब सब सामान्य है लोग आज भी मरते है पर खबर नही बनते है । सरकार का पुलिस महेकमा कहता है 8 जवान मलेरिया से मरे पर राज्य में कोई मौत मलेरिया से नही हुई । रोज़ असमय ही कितने लोग मरते है कभी गोली से तो कभी बीमारी से लेकिन इसका कोई रिकार्ड नही होता ।
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