Friday, August 3, 2007

कुछ दिन भूखे सही



छ्त्तीसगढ़ के सबसे ज्यादा खनिज सम्पदा से परिपूर्ण दक्षिण बस्तर इलाके मे टी. बी. , एनिमिया, सिकल सेल से पीडि़त मरीजो की भी खदान है । रोज लोग मर रहे है पर सब ठीक चल रहा है किसी के चेहरे पर जरा भी सिकन तक नही, अरे भाई इसलिये तो यह बस्तर है बस्तर ।
भारत के सबसे पिछ्ड़े जिलों मे से एक दक्षिण बस्तर दंतेवाडा में आपका स्वागत हैं । यह अदिवासी जिला लोह अयस्क के उत्कष्ट खदान के लिये जाना जाता है । एन. एम. डी. सी. की काफ़ी बडी खदान इस जिले में है । सब लोग गर्व से कहते है हमारे राज्य का गौरव एन. एम. डी. सी. है । करोडों रुपये की आमदानी इससे सरकार को है और सामाजिक जिम्मेदारी में हिस्सेदारी अलग से यानि लोहे के व्यापार में सबकी चांदी पर आदिवासी फ़िर भी भूखे है ।
पर बदकिस्मती देखिये इस जिले के बच्चे और महिला दोनो गंभीर कुपोषण के शिकार हैं । इस में सबसे बुरी हलात 6 माह से 36 माह के बच्चे की है कुल बच्चों में से 85फ़ीसदी कुपोषण की चपेट में है लगभग 65 प्रतिशत गर्भवती महिला भी खुन की कमी के साथ अपना जीवन जी रही है ।जिन्हें ये भी नही मालुम की प्रसव के समय वो और उसका बच्चा जीवित रहेगा या नही । खैर यहां के लोगो को साल भर खाने के लिये पार्यप्त खाना भी मय्सर नही हो पाता है । किसान अपने लिये कोसरा (एक तरह का चावल ) उगाते है लेकिन उपजाऊ जमीन की कमी के कारण उसे साल भर भी नही खा पाते है । सब लोग जंगल से मिलने वाली वनोपज पर निर्भर है । इससे अपनी आवश्कता की चीजें हाट से खरीदते है, लेकिन अब तो हाट भी सरकारी मर्जी से लगने लगे है । जहां लगे भी तो लोगों के पास इतनी लघु वनोपज भी नही है कि उस बेचकर जरुरत का सामान खरीदा जा सके । संग्रहण करने की इजाजत नक्सली और सरकार के लोग नही देते तो बेचारा इंसान क्या करे । खाने के लिये सुबह बासी ( रात का बचे चावल में पानी डाल कर रखने से बनता है) दोपहर मे पेज और शाम को कोसरा या चावल का भात खा पाते है । खाद्दान्य के कमी वाले दिनो में वनोपज पर निर्भरता होती है और खाना सिर्फ़ दो समय ही मिल पाता है यानि पेज और वनोपज (महुआ) ।
उपलब्ध संसाधान खान पान के तरिके तय करते है किन्तु यहां ऐसा नही है अनियमित और अपोषक आहार से कुपोषण बढ़ता ही जाता है । पिछ्ले कुछ सालो से आखेट में नक्सली और सरकार द्वारा लगाये प्रतिबंध से वनो में निवासरत जातियो को उच्च प्रोटिन व वसायुक्त भोजन मिलना मुश्किल हो गया है और कुपोषण बढ़ता जा रहा है । कुपोषण की स्थिति में सभी बीमारी शरीर पर जल्दी कब्जा करती हैं । ऎसे मे टी.बी., एनिमिया, खसरा, डायरिया और मलेरिया भी लोगो की जान लेने के लिये काफ़ी है । जलजनित रोगो की गिरफ़्त आने से हालत और भी खराब हो जाती है पर दो सालो में किसी की मौत नही हुई, ऎसा यही हो सकता है ।
बास्ता ( बांस की कोपल) खाने और बेचने पर भी प्रतिबंध लगा है । वन विभाग कहता है ये आदिवासी बस्ता बेचने के लिये बांस के जंगल को नष्ट कर के 35-40 रुपये का एक बांस के मान से करोडो रुपये का नुकसान कर रहे है पर जंगल के रखवाले तो यही लोग है । सरकारी नीलामी मे तो बांस की कीमत 2 या 3 रु० से ज्यादा नही होती है क्योंकि उसे उधोगो को बेचा जाता है और आम व्यक्ति के लिये 22-24 रु० में तो फ़िर मूल्यांकन 35-40 रु० का क्यों, समझ नही आता । 11 ब्लाक वाले इस जिले में कुछ ब्लाक के 70% से अधिक गांव तो सभी सरकारी सुविधा से वंचित है । कई अखवार तो कहते है कि 640 गांव मे सरकार का कोई काम नही होता पर राशि पूरी खर्च होती है । मतलब लगभग तीन लाख लोगो तक सरकार की पंहुच नही है तो इन गांवो के निवासी भगवान भरोसे ही जी रहे है । तीन प्रदेश की सीमा को छुते हुऐ इस जिले की समास्या भी काफ़ी जटिल है नक्सलवाद , गरीबी , अशिक्षा और भ्रष्टाचार। इन सब से निपटने की रणनीति कोई सोचना भी नही चाहता है । पी. साईनाथ सही कहते है अकाल कुछ लोगो की चाह्त होते है । 2004 मार्च में जिले के गांव बुरगुम, हिड़पाल में भूख से मौत ने सरकार की नाक मे दम कर दिया था । पर अब सब सामान्य है लोग आज भी मरते है पर खबर नही बनते है । सरकार का पुलिस महेकमा कहता है 8 जवान मलेरिया से मरे पर राज्य में कोई मौत मलेरिया से नही हुई । रोज़ असमय ही कितने लोग मरते है कभी गोली से तो कभी बीमारी से लेकिन इसका कोई रिकार्ड नही होता ।

1 comment:

Anjum soni said...

It is not just "कुछ दिन भूखे सही". It can be any duration rather than just few days. They (people)are just the lives towards whom nobody has any resposibilities.If this incident is pushed hard it may result in few discilinary action against the Govt employs lower in the hierarcy, but the situation continues to prevail.Any change in this direction takes aperiod of more than a generations time period.

Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा चिट्ठाजगत